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Kabir ke Dohe in Hindi PDF

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Table of Contents

दोहा

तूँ तूँ करता तूँ भया, मुझ मैं रही हूँ।

वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तूँ

जीवात्मा कह रही है कि ‘तू है’ ‘तू है’ कहते−कहते मेरा अहंकार समाप्त हो गया। इस तरह भगवान पर न्यौछावर होते−होते मैं पूर्णतया समर्पित हो गई। अब तो जिधर देखती हूँ उधर तू ही दिखाई देता है।

 

पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया कोइ।

एकै आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होइ॥

सारे संसारिक लोग पुस्तक पढ़ते-पढ़ते मर गए कोई भी पंडित (वास्तविक ज्ञान रखने वाला) नहीं हो सका। परंतु जो अपने प्रिय परमात्मा के नाम का एक ही अक्षर जपता है (या प्रेम का एक अक्षर पढ़ता है) वही सच्चा ज्ञानी होता है। वही परम तत्त्व का सच्चा पारखी होता है।

 

मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा।

तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै है मेरा॥

मेरे पास अपना कुछ भी नहीं है। मेरा यश, मेरी धन-संपत्ति, मेरी शारीरिक-मानसिक शक्ति, सब कुछ तुम्हारी ही है। जब मेरा कुछ भी नहीं है तो उसके प्रति ममता कैसी? तेरी दी हुई वस्तुओं को तुम्हें समर्पित करते हुए मेरी क्या हानि है? इसमें मेरा अपना लगता ही क्या है?

 

जिस मरनै थै जग डरै, सो मेरे आनंद।

कब मरिहूँ कब देखिहूँ, पूरन परमानंद॥

जिस मरण से संसार डरता है, वह मेरे लिए आनंद है। कब मरूँगा और कब पूर्ण परमानंद स्वरूप ईश्वर का दर्शन करूँगा। देह त्याग के बाद ही ईश्वर का साक्षात्कार होगा। घट का अंतराल हट जाएगा तो अंशी में अंश मिल जाएगा।

 

मन के हारे हार हैं, मन के जीते जीति।

कहै कबीर हरि पाइए, मन ही की परतीति॥

मन के हारने से हार होती है, मन के जीतने से जीत होती है (मनोबल सदैव ऊँचा रखना चाहिए)। मन के गहन विश्वास से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है।

प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरूँ, प्रेमी मिलै कोइ।

प्रेमी कूँ प्रेमी मिलै तब, सब विष अमृत होइ॥

परमात्मा के प्रेमी को मैं खोजता घूम रहा हूँ परंतु कोई भी प्रेमी नहीं मिलता है। यदि ईश्वर-प्रेमी को दूसरा ईश्वर-प्रेमी मिल जाता है तो विषय-वासना रूपी विष अमृत में परिणत हो जाता है।

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहिं।

सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि॥

जब तक अहंकार था तब तक ईश्वर से परिचय नहीं हो सका। अहंकार या आत्मा के भेदत्व का अनुभव जब समाप्त हो गया तो ईश्वर का प्रत्यक्ष साक्षात्कार हो गया।

कबीर माया पापणीं, हरि सूँ करे हराम।

मुखि कड़ियाली कुमति की, कहण देई राम॥

यह माया बड़ी पापिन है। यह प्राणियों को परमात्मा से विमुख कर देती है तथा

उनके मुख पर दुर्बुद्धि की कुंडी लगा देती है और राम-नाम का जप नहीं करने देती।

बेटा जाए क्या हुआ, कहा बजावै थाल।

आवन जावन ह्वै रहा, ज्यौं कीड़ी का नाल॥

बेटा पैदा होने पर हे प्राणी थाली बजाकर इतनी प्रसन्नता क्यों प्रकट करते हो?

जीव तो चौरासी लाख योनियों में वैसे ही आता जाता रहता है जैसे जल से युक्त नाले में कीड़े आते-जाते रहते हैं।

सात समंद की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ।

धरती सब कागद करौं, तऊ हरि गुण लिख्या जाइ॥

यदि मैं सातों समुद्रों के जल की स्याही बना लूँ तथा समस्त वन समूहों की लेखनी कर लूँ, तथा सारी पृथ्वी को काग़ज़ कर लूँ, तब भी परमात्मा के गुण को लिखा नहीं जा सकता। क्योंकि वह परमात्मा अनंत गुणों से युक्त है।

कबीर यहु घर प्रेम का, ख़ाला का घर नाँहि।

सीस उतारै हाथि करि, सो पैठे घर माँहि॥

परमात्मा का घर तो प्रेम का है, यह मौसी का घर नहीं है जहाँ मनचाहा प्रवेश मिल जाए। जो साधक अपने सीस को उतार कर अपने हाथ में ले लेता है वही इस घर में प्रवेश पा सकता है।

माली आवत देखि के, कलियाँ करैं पुकार।

फूली-फूली चुनि गई, कालि हमारी बार॥

मृत्यु रूपी माली को आता देखकर अल्पवय जीव कहता है कि जो पुष्पित थे अर्थात् पूर्ण विकसित हो चुके थे, उन्हें काल चुन ले गया। कल हमारी भी बारी आ जाएगी। अन्य पुष्पों की तरह मुझे भी काल कवलित होना पड़ेगा।

माया मुई मन मुवा, मरि-मरि गया सरीर।

आसा त्रिष्णाँ नाँ मुई, यौं कहै दास कबीर॥

कबीर कहते हैं कि प्राणी की न माया मरती है, न मन मरता है, यह शरीर ही बार-बार मरता है। अर्थात् अनेक योनियों में भटकने के बावजूद प्राणी की आशा और तृष्णा नहीं मरती वह हमेशा बनी ही रहती है।

 

ऐसी बाँणी बोलिये, मन का आपा खोइ।

अपना तन सीतल करै, औरन कौं सुख होइ॥

कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि।

ऐसैं घटि घटि राँम है, दुनियाँ देखै नाँहि॥

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि।

सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि॥

सुखिया सब संसार है, खायै अरू सोवै।

दुखिया दास कबीर है, जागै अरू रोवै॥

बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र लागै कोइ।

राम बियोगी ना जिवै, जिवै तो बौरा होइ॥

निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ।

बिन साबण पाँणीं बिना, निरमल करै सुभाइ॥

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया कोइ।

ऐकै अषिर पीव का, पढ़ैं सु पंडित होइ॥

हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।

अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि॥

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